ज्ञानवापी केस का क्या मथुरा, बेंगलुरु ईदगाह और क़ुतुब मीनार जैसे मामलों पर भी असर होगा?

ज्ञानवापी केस में वाराणसी ज़िला अदालत के फ़ैसले के बाद एआईएमआईएम चीफ़ असदुद्दीन ओवैसी ने कहा है कि ये मामला बाबरी मस्जिद की राह पर जा रहा है.

असदुद्दीन ओवैसी ने कहा, “अब लगता है कि इस तरह से मुक़दमा आगे बढ़ेगा तो फिर ये उसी रास्ते पर जा रहा है जिस पर बाबरी मस्जिद केस गया था. आप कहेंगे कि ये बाबरी की तरह टाइटल सूट का मामला नहीं है, वहां पर पूजा करने की इजाज़त दी जाए. कैसे होगा ये?”

“जब बाबरी मस्जिद का फ़ैसला आया था तो उस वक़्त मैंने कहा था कि बाबरी फ़ैसले से अब और मुश्किलें पैदा होंगी क्योंकि वो फ़ैसला फेथ (धार्मिक आस्था) के आधार पर दिया गया था.”

दरअसल, वाराणसी की ज़िला अदालत ने ज्ञानवापी मस्जिद परिसर में देवी-देवताओं की पूजा की मांग को लेकर की गई पाँच महिलाओं की याचिका को सुनवाई के लिए सोमवार को स्वीकार कर लिया और मुस्लिम पक्ष की अपील को खारिज कर दी.

पिछले साल अगस्त में दिल्ली की एक महिला राखी सिंह और चार अन्य महिलाओं ने ज्ञानवापी मस्जिद के परिसर में श्रृंगार गौरी और कुछ अन्य देवी-देवताओं के दर्शन-पूजन की अनुमति की माँग करते हुए एक याचिका दाख़िल की थी. अंजुमन इस्लामिया मस्जिद कमिटी ने हिंदू पक्ष द्वारा दायर की याचिका पर आपत्ति जताते हुए कहा था कि ये उपासना स्थल (विशेष उपबंध) और वक़्फ़ कानून का उल्लंघन होगा.

ज्ञानवापी केस पर फ़ैसले का दूसरे मामलों पर क्या असर होगा?

वाराणसी जिला जज एके विश्वेश ने अपने फ़ैसले में कहा कि हिंदू याचिकाकर्ताओं की याचिका न तो उपासना स्थल (विशेष उपबंध) क़ानून का उल्लंघन है और न ही वक़्फ़ कानून का. तो क्या इस फ़ैसले से इसी तरह के दूसरे मामलों पर असर नहीं पड़ेगा?

हिमाचल प्रदेश नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में प्रोफ़ेसर चंचल कुमार सिंह ने इस सवाल पर बीबीसी संवाददाता मोहम्मद शाहिद से कहा, “अदालत द्वारा इस मामले को सुनवाई के लिए स्वीकार कर लेने से ज्ञानवापी मस्जिद का स्टेटस फिलहाल नहीं बदलने वाला है, क्योंकि उपासना स्थल (विशेष उपबंध) क़ानून ये कहता है कि एक धर्म को मानने वाले लोगों के पूजा स्थल को दूसरे धर्म के उपासना स्थल में नहीं बदला जा सकता है. इसका एक ही अपवाद था और वो था अयोध्या केस क्योंकि वो एक संपत्ति विवाद से जुड़ा मामला था.”

वो आगे कहते हैं, “इस तरह के भारत में कई विवाद हैं. इसमें कई पक्ष होते हैं. निश्चित रूप से इस तरह के मामले और बढ़ेंगे लेकिन इसका मतलब ये भी नहीं है कि वाराणसी कोर्ट ने ज्ञानवापी मस्जिद का स्वरूप बदल दिया है. उन्होंने ये फ़ैसला दिया है कि वे इस पर विचार कर सकते हैं.”

हालांकि प्रोफ़ेसर चंचल कुमार सिंह ये भी कहते हैं कि क़ानूनी रूप से ये संभव नहीं है. अंजुमन बोर्ड ने कहा है कि वो वाराणसी कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ हाई कोर्ट में अपील दायर करेंगे. बहुत मुमकिन है कि हाई कोर्ट ज़िला अदालत के फ़ैसले को ख़ारिज कर दे. क्योंकि उपासना स्थल (विशेष उपबंध) क़ानून के अनुसार वाराणसी कोर्ट को ये याचिका स्वीकार नहीं करनी चाहिए थी.

भारतीय राजनीति के अयोध्या प्रकरण में लोगों ने देखा कि राम मंदिर निर्माण के लिए लंबा आंदोलन चला, मस्जिद विध्वंस हुआ लेकिन आख़िर में मामला देश की सबसे बड़ी अदालत के फ़ैसले से ही सुलझा. इसलिए अब धार्मिक स्थलों से जुड़े विवाद राजनीतिक आंदोलनों के रास्ते ले जाने के बजाय अदालतों में लड़ी जाने लगी है.

लंबे समय से राजनीतिक दलों को कवर करते आ रहे पीटीआई के वरिष्ठ पत्रकार दीपक रंजन कहते हैं, “चाहे अयोध्या हो या काशी हो या फिर मथुरा हो, इनमें से किसी भी मामले को अगर हम देखें तो ये संवेदनशील मामले हैं. इससे देश के सामाजिक ताने-बाने पर असर पड़ सकता है. अयोध्या का मामला हमारे सामने उदाहरण है कि सुप्रीम कोर्ट ने किस तरह से इस मामले को सुलझाया. इसका दूसरा पहलू ये भी है कि देश को अगर विकास के रास्ते पर आगे ले जाना है तो ऐसे विवादास्पद मुद्दों को अदालत के जरिए सुलझाया जाना ही सभी पक्षों के लिए ठीक होगा.”

अयोध्या और ज्ञानवापी अपनी तरह के अकेले मामले नहीं हैं. बेंगलुरु का ईदगाह मैदान, मथुरा का मंदिर-मस्जिद विवाद, क़ुतुब मीनार और ताजमहल पर विवाद. देश के विभिन्न हिस्सों में अलग-अलग जगहों पर इस तरह के विवाद सामने आ रहे हैं.

दीपक रंजन कहते हैं, “चाहे वो हिंदू पक्ष हो या मुस्लिम पक्ष, इसका राजनीतिक लाभ सभी लेना चाहते हैं और ये एक ट्रेंड चल पड़ा है. चूंकि ये मामले देश के सामाजिक ताने-बाने से जुड़े हैं, इसलिए मुझे लगता है कि सुप्रीम कोर्ट को इन्हें सीधे अपने हाथों में ले लेना चाहिए और इन्हें क्लब करके संविधान पीठ के जरिए सुनवाई करनी चाहिए ताकि एक साथ सभी मुद्दों का निपटारा किया जा सके.”

धार्मिक उपासना स्थल कानून पर चल रही सुनवाई पर क्या असर होगा

ज्ञानवापी मामले और श्रीकृष्ण जन्मभूमि-ईदगाह मस्जिद विवाद में उपासना स्थल (विशेष उपबंध) अधिनियम, 1991 का ज़िक्र ज़रूर आता है. इस अधिनियम के मुताबिक़ भारत में 15 अगस्त 1947 को जो धार्मिक स्थान जिस स्वरूप में था, वह उसी स्वरूप में रहेगा.

इस मामले में अयोध्या विवाद को छूट दी गई थी. लेकिन अब जब वाराणसी ज़िला कोर्ट ने उस दलील को मानने से इनकार कर दिया है कि उपासना स्थल (विशेष उपबंध) क़ानून ज्ञानवापी के मामले में लागू नहीं होता है तो इस मामले पर नए सिरे से बहस छिड़ गई है.

इसी साल जून में इस क़ानून की कुछ धाराओं की संवैधानिक वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी. याचिकाकर्ताओं का कहना है कि इस क़ानून की कुछ धाराएं धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत का उल्लंघन करती हैं. क्या ताज़ा फ़ैसले से इस मामले की सुनवाई पर कोई असर पड़ेगा?

सुप्रीम कोर्ट के जानेमाने एडवोकेट विराग गुप्ता कहते हैं, “1991 के क़ानून के अनुसार यथास्थिति यानी स्वामित्व के पहलू की वैधता पर सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों की बेंच विचार कर रही है. लेकिन ज्ञानवापी मामले में क़ानून की व्याख्या से पूजा करने के अधिकार के नए पहलू पर बहस शुरू हो गई है. मथुरा और क़ुतुब मीनार जैसे दूसरे मामले स्थानीय अदालतों में चल रहे हैं, जिनके कई पहलुओं पर हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई होने के बाद ये मामले जटिल हो सकते हैं.”

“अयोध्या विवाद के फ़ैसले में पांच जजों की बेंच ने पूजा स्थल कानून की संवैधानिकता को मान्यता दी थी. इसलिए इन नए उभरते पहलुओं पर निर्णायक फ़ैसले के लिए सुप्रीम कोर्ट में पांच या उससे ज्यादा बड़ी बेंच सुनवाई कर सकती है. नई व्याख्या और क़ानूनी पेचीदगियों की वजह से ऐसे मामलों में मुकद़मेबाज़ी के कई दौर चलने से निर्णायक न्यायिक फैसला आने में खासा समय लग सकता है.”

हालांकि चंचल सिंह इस मामले में एक अन्य पहलू की ओर इशारा करते हैं, “एक धार्मिक स्थल का क्या स्वरूप होगा, उसके परिसर का क्या मतलब है. इस पहलू को लेकर भी विवाद हो सकता है और इसका फ़ैसला भी अदालत को ही करना होगा कि क्या चीज़ें परिसर के अंतर्गत आएंगी और क्या नहीं.”

आइए एक नज़र डालते हैं ऐसे ही कुछ मामलों पर जिनकी लड़ाई अदालत के गलियारों में लड़ी जा रही है

बेंगलुरु के ईदगाह मैदान को लेकर मुस्लिम समुदाय का दावा है कि साल 1871 से इस ज़मीन पर उनका बेरोकटोक दखल रहा है. वे इस ज़मीन का इस्तेमाल अपनी इबादत के लिए और कब्रिस्तान के रूप में करते रहे हैं.

लेकिन कर्नाटक हाई कोर्ट ने अपने एक फ़ैसले में इस ईदगाह मैदान पर सीमित समय के लिए धार्मिक गतिविधियों की इजाज़त दे दी जिसके बाद राज्य सरकार ने यहां गणेश चतुर्थी की पूजा के लिए आदेश जारी कर दिए.

इस फ़ैसले को कर्नाटक बोर्ड ऑफ़ ऑक़फ़ और सेंट्रल मुस्लिम एसोसिएशन ऑफ़ कर्नाटक ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी.

मुस्लिम पक्ष का कहना था कि मैसूर स्टेट वक़्फ़ बोर्ड ने इसे वक़्फ़ प्रोपर्टी घोषित कर रखी है और जब कोई संपत्ति वक़्फ़ प्रॉपर्टी घोषित कर दी जाती है तो उसके चरित्र में कोई बदलाव नहीं किया जा सकता है. इसे छह महीने के भीतर ही चैलेंज किया जा सकता है.

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने कर्नाटक हाई कोर्ट के फ़ैसले को पलट दिया. सुप्रीम कोर्ट ने वहां गणेश पूजा की इजाज़त देने से इनकार कर दिया और वहां यथास्थिति बहाल रखने के लिए कहा था. सुप्रीम कोर्ट में इस मामले पर अगली सुनवाई इसी 23 सितंबर को होनी है.

मथुरा मंदिर-मस्जिद विवाद

इस विवाद के मूल में 1968 में हुआ समझौता है जिसमें श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संघ और ट्रस्ट शाही मस्जिद ईदगाह ने ज़मीन विवाद को निपटाते हुए मंदिर और मस्जिद के लिए ज़मीन को लेकर समझौता कर लिया था.

लेकिन, पूरे मालिकाना हक़ और मंदिर या मस्जिद में पहले किसका निर्माण हुआ, इसे लेकर भी विवाद है. हिंदू पक्ष का दावा है कि इस मामले की शुरुआत साल 1618 से हुई थी और इसे लेकर कई बार मुक़दमे हो चुके हैं.

याचिकाकर्ताओं के मुताबिक समझौता करने वाली सोसाइटी को इसका कोई अधिकार नहीं था और ये समझौता ही अवैध है. इस समझौते में श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट को भी पक्ष नहीं बनाया गया था.

दूसरी तरफ़ मुस्लिम पक्ष का कहना है कि अगर ये समझौता अवैध है और सोसाइटी को अधिकार नहीं था तो ट्रस्ट की तरफ़ से कोई आगे क्यों नहीं आया. याचिका डालने वाले बाहरी लोग हैं. समझौते पर सवाल उठाने का अधिकार उन्हें कैसे है. जो हुआ वो अतीत की बात थी लेकिन अब जानबूझकर ऐसे विवाद पैदा किए जा रहे हैं.

क़ुतुब मीनार मामला

कुछ हिंदू संगठन लंबे समय से यह दावा करते रहे हैं कि क़ुतुब मीनार का परिसर वास्तव में हिंदू धर्म का केंद्र था.

एक हिंदू कार्यकर्ता और इस मामले को अदालत में ले जाने वाले वकील हरि शंकर जैन का कहना है कि “वहाँ अभी भी हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं जो टूटी हुई पड़ी हैं. यह देश के लिए शर्म की बात है. इस संबंध में हमने दावा किया है कि हमें वहाँ पूजा करने का अधिकार दिया जाना चाहिए.”

हरिशंकर जैन ने अदालत में अपनी याचिका में कहा कि कोई तोड़ा गया मंदिर अपने चरित्र, दैवीय गुण या पवित्रता को नहीं खोता. उन्होंने बताया कि उन्हें कु़तुब मीनार के परिसर में पूजा करने का संवैधानिक अधिकार है. उनकी इस दलील पर जज ने कहा, “देवता पिछले 800 सालों से बिना पूजा के यदि जीवित हैं, तो उन्हें ऐसे ही जीवित रहने दें.”

इसी साल मई में एक हिंदू दक्षिणपंथी संगठन के सदस्यों को क़ुतुब मीनार के परिसर में पूजा और मंत्रों का उच्चारण करने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था.

दूसरी तरफ़ पुरातत्व मामलों के जानकारों का रुख़ इस परिसर को लेकर साफ है. केंद्र सरकार के क़ानून के अनुसार यह परिसर एक ‘संरक्षित स्मारक’ है. ऐसे लोगों का कहना है कि इसके ‘कैरेक्टर’ या प्रकृति को अब नहीं बदला जा सकता. ये मामला अभी भी अदालत में है.

ताजमहल पर विवाद

आगरा स्थित ताजमहल पर भी पिछले दिनों विवाद पैदा करने की कोशिशें होती हुई देखी गई हैं.

इस साल मई में इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने ताजमहल के 22 बंद दरवाज़ों को खोलने की मांग वाली याचिका को ख़ारिज कर दिया था.

याचिकाकर्ताओं की मांग थी कि ताजमहल के ऊपरी और निचले हिस्से में बंद क़रीब 22 कमरे खुलवाए जाएं. याचिका में यह माँग भी की गई थी कि पुरातत्व विभाग को उन बंद कमरों में मूर्तियों और शिलालेखों की खोज करने का भी आदेश दिया जाए. उसमें ये भी दावा किया गया कि 1631 से 1653 के बीच के 22 साल में ताजमहल बनाए जाने की बात सच्चाई के परे है और मूर्खतापूर्ण भी.

ये याचिका बीजेपी के एक नेता ने दायर की थी हालांकि उनका दावा था कि उन्होंने यह याचिका ख़ुद दाख़िल की है और पार्टी का इससे कोई लेना-देना नहीं है.

कुछ लोगों का ये भी दावा रहा है कि ताजमहल की जगह पर पहले प्राचीन शिव मंदिर था. हालांकि ये दावा हिंदुत्ववादी इतिहासकार पुरुषोत्तम नागेश के लेखन को आधार बनाकर किया जाता है.

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